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आत्म रमण / ईहातीत क्षण / मृदुल कीर्ति

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अविचल आत्मस्थ होने को,

स्थान, स्थिति , आयाम

या आसन को ग्रहण करने,

या बदलने या छोड़ने का क्रम- उपक्रम ,

कोई महत्त्व नहीं रखता .

सम्यक ज्ञान से आत्म ध्यान,

आत्म संशोधन,

आत्म सिद्धाचल होने को

अविचल आत्म तितिक्षा ही,

आत्म रमण का सहायक तत्व है.

हर आत्मा स्वयम ही,

जीवन ही ग्रहण करता है,

और जीवन ही त्यागता है.

मरण और शून्यावस्था तो शाश्वती है.

न हम मरण ग्रहण करते है.

न हम मरण त्याग करते हैं.

अपने ही राग द्वेषों से वह

जीवन मरण का त्याग- ग्रहण करता है .

यही जीव जगत का कारण तत्व है.

आत्म संवरण कर कर्मों की तीव्रता को

कम करना है.

तब ही कर्म क्षय होंगे ,

ऋण -अनुबंध चुकेंगे ,

संस्कार रुकेंगे,

जन्म मरण थमेंगे,

हम आत्म रमण करेंगे.

हम अनाहत आत्म रमण करेंगे .