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आत्म संवाद / रश्मि भारद्वाज

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अब तक नहीं लिख सकी कि कितने नर्कों के बाद मैं यह बोल पड़ी थी कि बस अब यह मेरा आख़िरी नर्क होगा
कहाँ लिखा कि रात -अँधेरे उठ कर तय करती रहती हूँ ठीक से बंद हों घर के दरवाज़े, खिड़कियां
नहीं लिखा कि किन किन मौकों पर मुझे बोलने नहीं दिया गया
या कि मैंने ख़ुद ही चुना चुप रह जाना
नहीं लिख सकी कि कितनी बार मेरी आँखों को ज़बरन बंद करा दिया गया
और कुछ दृश्य जलते रह गए मन में हमेशा
नहीं लिखा कि कितनी ही बार कितनी अश्लीलता से याद करायी जाती है मुझे मेरी देह
या कि मेरे कुछ भी बोलने पर थमाए गए मुझे तमगे
उदंड, बत्तमीज़, बेशऊर या पागल होने के

मेरे हाथ में कलम थी, मेरे पास आवाज़ थी
लेकिन मैं अपने लिए ही नहीं लड़ पायी
मेरा भय छिपा था मेरे नाम में
मेरा भय छिपा था मेरे नाम के आगे लगे एक ख़ास उपनाम में
मेरा भय था एक ऐसी मिट्टी से उखड़ आना जिसका ज़िक्र भी गाली की तरह किया जाता है
मेरा भय था कि पुरुष की छत्र छाया से वंचित हर स्त्री चरित्रहीन ही कहलाती है

मैं एक मज़बूत स्त्री होने का आडंबर रचती
हर दिन एक नए भय से लड़ने को अभिशप्त हूँ