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आत्‍मा की झील में / प्रेमशंकर शुक्ल

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कितने दिनोँ से पीड़ा-पराजय
पश्‍चाताप की झड़ी लगी है
हृदय को धूप दिखाना है

होंठ ठस पड़ते जा रहे हैं
खुलकर मुस्‍कुराना है
हँसना-खिलखिलाना है

आँखों में बहुत धूल भर गई है
आत्‍मा की झील में
तैर कर आना है

आकाश माथे पर दिन चढ़ आया है
पूजा का वह इन्दीवर लाना है
इधर कण्ठ ने पिया नहीं कुछ मीठा-मधुर
झील के घाट पर बैठ
गा-गा कर इसे इमरित चखाना है

साधो ! मेरे दिवस की दोपहर वेला है यह
आपके साथ अब खिचड़ी क्‍या पकाना है
अन्तस्‌ के पानी के प्रेम में
मुझे कोई प्राचीन लिपि में धड़कता हुआ
छन्‍द गुनगुनाना है