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आदत हो गई है / जगदीश जोशी / क्रान्ति कनाटे

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काले-काले दिनों की
मुझे तो आदत हो गई है ।

समुद्र पर पड़े झाग की तरह
एक के बाद एक
ये आसानी से फूट नहीं जाते ।

परन्तु
कभी-कभार आते खुले दिनों की
यह पीतांबरी चमक
आषाढ़ की बौछार बन
आँख से झर जाती है
तब
मैं लिपट जाता हूँ
तुम्हारी याद के रेतीले खम्भे से

और एकदम एकाकी
हो उठता हूँ ।

मूल गुजराती से अनुवाद : क्रान्ति कनाटे