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आदत / अपर्णा अनेकवर्णा
Kavita Kosh से
सान्द्रता बढ़ती जाती है
हर उच्छ्वास से..
फाँकती हूँ मुट्ठी भर-भर
असहाय हो चुका दुःख
घोंटती हूँ.. कड़वी गोली-सी..
बिना पानी अटकी है हलक में...
घुल रही है कड़वाहट..
फैल रही है..
कड़वाहट जीना..
अब आदत बनती जा रही है..