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आदमक़द टूटन / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
एक अदद ख़ामोशी
औ’ आदमक़द टूटन
शेष रहा इतना ही धन
बाक़ी सब हो गया हवन ।
ख़ाली हाथों वाले
नीले अक्षांशों में घूमना
दिन का पारा पी कर
रातों के प्रेतों से जूझना
भीतर-भीतर
कच्ची मिट्टी के बर्तन-सा
फूटना
एक छन्द भर आँसू
एक गीत भर तड़पन
शेष रहा इतना ही धन
बाक़ी सब हो गया हवन ।