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आदमखोर गली में / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र
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दिन भोले हैं
चले जा रहे आदमखोर गली में
जश्न हो रहा लाशघरों में
धूप खड़ी डर ओढ़े
नये हाकिमों के धंधे में
दर्द हुए हैं पोढ़े
डरी हुई चौखट के आगे
उठता शोर गली में
राजघरानों के रिश्तों ने
सारी बस्ती तोड़ी
थानेदारों की बिसात पर
साँसें बिछीं निगोड़ी
उजियाले मीनारों में हैं
अंधी भोर गली में
रोज़ आदमी की हत्याएँ
होतीं चौराहों पर
खुदे गुलामी के गुदने हैं
सूरज की बाँहों पर
बातें नये शिवालों की हैं
फिरते ढोर गली में