भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आदमीयत का कभी इतना बुरा हाल न हो / योगेन्द्र दत्त शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आदमीयत का कभी इतना बुरा हाल न हो
जैसा बीता है, कभी ऐसा कोई साल न हो !

साल तो आये नया, शौक़ से आ जाये, मगर
चैन से जी लेने दे, जान का जंजाल न हो !

काश, कोई तो शिकारी हो, जो दाने डाले
पास में उसके फंसाने के लिए जाल न हो !

खींचता आया है वो हाथ हमेशा पीछे
हाथ अब उसने बढ़ाया है, कोई चाल न हो !

क्यों तिजोरी की जगह मन न खंगाला तुमने
ऐन मुमकिन है, तिजोरी में कोई माल न हो !

दोस्त जो मेरा बने, शाह तबीयत का रहे
हो वो मुफ़लिस ही भले, मन से वो कंगाल न हो !

जिस्म में रूह न हो, ख़ाक में मिल जाये ज़मीर
ज़िन्दगी अपनी कभी इतनी भी पामाल न हो !

प्रश्न जितने हों कठिन, उनके समाधान भी हों
मुक्त विक्रम हो, कहीं कंधे पे बेताल न हो !

दिल हो पहलू में किसी शख़्स के, मुमकिन है, मगर
शर्त बस ये है कि गैंडे की तरह खाल न हो !

हौसला साथ भला उसका कहां तक देगा
पास जिसके कोई तलवार न हो, ढाल न हो !