आदमीयत भूलोॅ नै / रूप रूप प्रतिरूप / सुमन सूरो
जीयै छोॅ जीयोॅ मतुर दोसरा लेॅ जीयोॅ!
जिनगी के मोल की? जों अपना लेॅ जीयै छोॅ,
मुँह फेरो सभ्भै सें, दूध-घी पीयै छोॅ,
अगल-बगल ताकोॅ, लाज गुदरी सें झाँपै लेॅ
खखनै छै जे, ओकरोॅ गेनरा तेॅ सोयोॅ!
मानै छीं, मौजोॅ सें जीना ही जीना छै,
तें कि समाजोॅ में लाज-शरम पीना छै?
आदमी के बेटा छोॅ, आदमीयत भूलोॅ नै,
हकनै छै कोय्जों तेॅ लोर ओकरोॅ पीयोॅ!
सोचोॅ नै तोरा लेॅ के-के की करने छौं
वक्ती पर घावोॅ केॅ के-के नै भरने छौं,
सोचोॅ नै बदला तों लै लेॅ, चुकाबै लेॅ;
राखोॅ नै बान्ही केॅ पेटोॅ में कीहोॅ!
जिनगी के सरल सोत झरना रं झरलोॅ छै,
माँटी के कायाभर जित्तोॅ छै, मरलोॅ छै,
फूलोॅ के फुलबोॅ मुरझाबै तक गमकै छै,
साँसोॅ तक आबै में हवा कहाँ ठमकै छै,
सिरजन के डोर एक-दोसरा सें जुड़लोॅ छै,
तोरा लेॅ दोसरोॅ, तों दोसरा लेॅ जीयोॅ!