आदमी-२ / सरोज परमार
सुविधाओं के ऑक्टोपस की लिजलिजी
गिरफ्त में मस्त्
हम व्यस्त होने का कितना दम्भ भरते हैं
पर राग बनने के लिए चोट सहने का दम
हमनें नहीं ।
न ही मसीहा बनने के लिए कील
ठुकवाने की उमंग ही रह गई है।
हाँ आबादी का शोर बहुत सुनाते हैं ।
पर आदमी...........................?
शायद तिलचट्टे सा किसी चौराहे पर
धूल से लिथड़ा,अधमरा सा सिसक रहा होगा।
दर्द की किरचों पर चलता आदमी
सुकून पाता ऐ
अन्धेरे,सीलन भरे चाय के खोखे में
(अभिजात्य ब्राडवेज, सेवन स्टार की बात कर) ।
मन का गुबार निकालने के लिए
दूसरे महकमों को तब तक गाली देता है
जब तक उसका अपना बौनापन झलक
नहीं जाता ।
या
बीवी बच्चों से लड़ता-झगड़ता है
उपदेश की डोज़ पिलाता है।
या
रेशम के कीड़े की तरह
एक मौन ओढ लेता है
ओर सहते सहते घुटते घुटते
दम तोड़ देता है ।
मुझे लगता है
ज़िन्दगी को तलाशने
आदमी के हाथ कफन आ गया हो
या
वह तंदूर में जा गिरा हो
जहाँ कफन की भी ज़रूरत नहीं ।
लगता है
ज़िन्दा बनाए रखने की अपनी ज़िम्मेवारी
अब से ख़त्म हुई, हाँ ख़त्म हुई।