आदमी की गंध / त्रिलोचन
आदमी को जब तब आदमी की ज़रूरत होती है। ज़रूरत होती है, यानी, कोई
काम अटकता है। तब वह एक या अनेक आदमियों को बटोरता है।
बिना आदमियों के हाथ लगाये किसी का कोई काम नहीं चलता।
गाँव में ही मैंने अपना बचपन बिताया है। जानता हूँ लोग अपना काम
सलटाने के लिए इनको उनको भैया, काका या दादा आदि आदर के
स्वर में बुलाते हैं। कुछ मज़ूर होते हैं कुछ कुछ थोड़ी
देर के लिए सहायक होते हैं। जो सहायक होते हैं उनके यहाँ ऐसे ही
मौक़ों पर ख़ुद भी सहायक होना पड़ता है ; इसमें यदि चूक हुई तो
मन भीतर-ही-भीतर पितराता है। जिसकी ओर चूक हुई उसकी ओर
लोग बहुधा आदत समझ लेते हैं।
गाँवों का काम इसी तरह चला करता था और अब भी चलता है। पहले के
गाँव अब बहुत बदल गए हैं। कामों का ढंग भी बदला है। खेती
सिंचाई-पाती और घरबार का रूप-रंग और ढंग बदला है। गाँवों में
अब जिनका पेट नहीं भरता वे शहर धरते हैं। शहरों में बड़े-बड़े
कारखाने होते हैं। गाँवों के लोग इन्हीं में से किसी एक में जैसे-तैसे
काम पता जाते हैं। कोई साइकिल-रिक्शा किराये पर चलते हैं।
शहरों में आदमी को आदमी नहीं चीन्हता। पुरानी पहचान भी बासी होकर
बस्साती है। आदमी को आदमी की गंध बुरी लगती है। इतना ही
विकास, मनुष्यता का, अब हुआ है।