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आदमी की तलाश / रूपम झा
Kavita Kosh से
घूम रही है
दहशत ओढ़े क्यों बस्ती में लाश
चलो आदमी की करते हैं
फिर से आज तलाश ।
कहीं हरापन नहीं
पेड़ हैं सूखे पड़े हुए
उतरे चेहरे दुख से जैसे
रूठे खड़े हुए
कौन खिलाएगा पतझर में
फिर से सुर्ख़ पलाश ।
क्यों सपनों को नहीं
देखते, क्यों यह रंग उड़ा
क्यों उम्मीदों से जीवन का
रिश्ता नहीं जुड़ा
क्या उदास चेहरों का दोषी
है केवल आकाश ।
अख़बारों में
इनकी बातें होती कहीं नहीं
महलों की रंगत में बस्ती
दिखती कहीं-कहीं
हाथ धरे क्या मैं भी बोलूँ
हो जाता कुछ काश !