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आदमी क्या पोशाक : आदमी के लिए / धनंजय वर्मा

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क्या अब करनी ही होगी ऐ मेरे दोस्त, मेरे हमदम
शिकारी कुत्तों, खूँखार भेड़ियों और आदमखोरों के इस शहर में,
अपनी एक अन्तर्गुहा की तलाश !
सुरक्षित हो जाने और ऊपर तक पहुँच जाने की शातिराना कोशिश,
हो सकते हैं ग़लत फ़ैसले
पड़ नहीं सकता सही हर क़दम
लड़ी जा सकती नहीं दूसरों के औजारों से अपनी जंग !
बेहतर है दूसरों की जन्नत से, अपना जहन्नुम, अपना तो है !
लग सकता है, लकवा,
दाएँ या बाएँ किसी भी बाजू
सर पे बैठ सकती है, बल्कि पसर ही जाती हैं — कुर्सियाँ।
बेहद छोटी-छोटी ना-मालूम-सी नाचीज़ चीज़ों से
जुड़ता है आदमी, आदमी से;
बुनता है इक-इक रेशा आहिस्ता-आहिस्ता
सिलता है रिश्तों की क़िबा
लगता है कंगले की तरह पैबन्द-दर-पैबन्द।
बन सकता है,
आदमी भी क्या पोशाक
आदमी के लिए... ?