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आदमी / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
आज
जंगल के
भयावह हिंस्र आदमखोर पशुओं से
सुरक्षित
- आदमी।
- आदमी।
ऋतुओं के
विनाशक तेवरों से
है न किंचित्
भीत, आशंकित व चिन्तित
- आदमी।
- आदमी।
प्रकृति के
नाना प्रकोपों से
स्वयं को,
अन्य जीवों को
बचाना जानता है
- आदमी।
- आदमी।
शून्य की
ऊँचाइयों पर
जा पहुँचना
है सरल उसको।
सिन्धु की
गहराइयों की
थाह लेना
है सहल उसको।
किन्तु अचरज !
आदमी है
आदमी से आज
सर्वाधिक अरक्षित,
आदमी के ही
मनोविज्ञान से
बिल्कुल अपरिचित।
भयभीत
घातों से
परस्पर।
रक्ताक्ष
आहत
क्रुद्ध
ज़हरी व्यंग्य बातों से
परस्पर।
टूट जाता आदमी —
आदमी के
क्रूर
मर्मान्तक प्रहारों से,
लूट लेता आदमी —
आदमी को
छल-भरे
भावों-विचारों से।
आदमी —
आदमी से आज
कोसों दूर है,
आत्मीयता से हीन
बजता खोखला
हर क़दम
सिर्फ़ ग़रूर है।