आदम / गुलाम नबी ‘ख़याल’
जीवन ने पुकारा
मैं हाज़िर हुआ
दो नेत्र खोले
तो चहुँ और देखा
खिला प्रकाश।।
दूर-दूर तक सीमा-तट-विहीन समुद्र
सूर्य की प्रथम किरण
जब तक न गिरी जल में
आग की लपटें
फुफकारने लगीं अजगर-सी।
कहीं अज्ञात से आया
उड़ता पक्षी
चोंच से गिरा तृण
फिर भी गया वह उड़ता।
घास तृण गिरता गया
नीचे-ही-नीचे
लपटें फिर विस्तीर्ण करने लगीं आग
लगी करने नृत्य
महान समुद्र करता है शोर
दृष्टि है ऊपर की ओर
भूले से ही ईश्वर ने
रचा मनुष्य
पक्षी गाने लगा
ईश्वर है महान्ः ईश्वर है महान।।
लौटने की वह अंतिम घड़ी
जब आएगी
अंततः
धूल से दामन होगा
तार-तार धूमिल।
झाडँूगा इसे यदि
न रहे इसका गला भी साबूत
अभी से कपड़ों में लगी है
ऊपर-नीचे पैबंद।
क्या ठीक नहीं होगा
अगर मैं करूँ पहले ही भारमुक्त
ये तेज़ी से बीते जा रहे दिन
निर्वसन।
आह ! यह पैबंद
यों ही कंधों को किए है बोझिल
चोंच से पक्षी के
जो तृण गिरा सो गिरा
पक्षी आज भी कर रहा है
परवाज़ हवा में।