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आदिवासी औरत और पेप्सी / विपिन चौधरी

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 बाज़ार की चमचमाती आंखे
सड़क पर चलते हाथों में सिमटी
दमड़ी को टटोल रही हैं

समाज की आंखे इंसान की
पीठ पर नज़र गड़ा कर
उसका लहू पीने की तैयारी में हैं

तभी एक आदिवासी औरत के हाथ में पेप्सी देख
समाज का चेहरा कठोर हो
तन जाता है
अपनी सूजी हुई आँखों से
समाज देख रहा है
आदिवासी महिला का काला-कलूटा रंग
खनिज की प्रकृति से मेल खाता हुआ उसका
दरदर्राया हुआ कठोर और नुकीला चेहरा

समाज को आदिवासी औरत के
आदि पन से परेशानी नहीं है
परहेज़ है तो
माथे तक सिन्दूर पोते
चटक लाल सस्ती साड़ी पहने
छम-छम करती मेट्रो में चढ़ आई
आदिवासी महिला के हाथ में पकड़ी हुई
उस ‘चिल्लड पेप्सी’ से

इस बीच आदिवासी महिला
समाज की नजरों की ठीक सिधाई में बैठ
बिना साँस लिए पूरी की पूरी
पेप्सी उतार लेती है
अपने हलक के नीचें

यह देख समाज का गला अचानक से सूखने लगता है