आदिवासी क्षेत्र / मोहन अम्बर
नगरों के ज्ञानवान लोगों तुम करो माफ,
यह मेरा दोष नहीं बोला है गीत आप,
आदिवासी दर्द ने बात करी छंद से।
अंबुआ पर कोयल क्या? काग नहीं बोलते,
बौरों पर भर रातों, चमगादड़ डोलते,
दूरी तक नहीं घास, पशुओं की तेज प्यास,
सोलह को पार गये, मुखड़े तक है उदास,
फागुन की लाज बची महुओं की गँध से।
आदिवासी दर्द ने बात करी छंद से।
डूँगर है भीलों की, फूटी तकदीर-से,
फसल जहाँ ऊगती है, आँखों के नीर से,
मक्के की रोटी भी पूनम का चाँद बनी,
पन्द्रह दिन मिलती तो पन्द्रह दिन याद बनी,
इस पर भी गिरवी तन ब्याजी अनुबँध से।
आदिवासी दर्द ने बात करी छंद से।
केसूड़ी फूली पर लोग नहीं तोड़ते,
भूखे हैं सियाराम, गिरिजाघर दौड़ते,
हाटों का हाल-चाल देखा तो हृदय जला,
पीतल की अन्नी को धेले भर नमक मिला,
व्यथा पढ़ी आँचल के मैले पैबन्द से।
आदिवासी दर्द ने बात करी छंद से।
चार-चार अफसर के बीच एक टापरी,
योजना है दूसरी, साल रहा आखरी,
कल्याणी कर्मों के हाथ मगर छोटे हैं,
पूँजी की कमी नहीं फर्जों के टोटे हैं,
कहने को विवश हुआ सच की सौगंध से।
आदिवासी दर्द ने बात करी छंद से।