आदिवासी (2) / राकेश कुमार पालीवाल
वे नहीं जानते कौन है
उन आदिम गीतों के रचयिता
जिसे गुनगुना रहे हैं बचपन से
उन्हें नहीं पता कौन है
उन धुनों का आदि निर्माता
जिसे बजा रहे हैं भरी जवानी से
उन्होंने नही सीखा
गीतों से लय ताल बद्ध नृत्य
श्यामक डाबर सरीखे किसी चर्चित
गुरू की नृत्यशाला से
इन्होंने केवल देखा भर है
अपनी बुजुर्ग पीढियों को
इन्हीं गीतों और धुनों को
यूं ही झूम झूम कर
नाच नाच कर गाते बजाते
पता नहीं वेद पुराणों और
उपनिशदों की तरह
कितने पुराने हैं ये गीत
ये धुन और ये नृत्य
इन्होंने कभी खोदनी भी नही चाही
अपनी संस्कृति के इतिहास की कब्र
इनकी परम्परा भी यही है
कि जितना दिया पुरानी पीढी ने
और जितना लिया नई पीढी ने
कबीर की कोरी चदरिया की तरह
उतना ही जस का तस सौंप देना है
आने वाली पीढियों को सुरक्षित संरक्षित