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आधार शिविर / सुरेश विमल

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पहाड़ दर पहाड़ दर पहाड़
चढ़ाई कभी
खत्म नहीं होती यह
पीछे मुड़कर देखता हूँ
तो गहराइयाँ कंपा देती हैं
पीछे छूटी हुई
सतहों पर...
पांवों के तलवों में
हाहाकार करती है
छालों की असह्य वेदना
और भयावह निर्जन बावड़ियों के
तल-सी आंखें
ताकती हैं
धुंध से भरा
एक निरन्तर अपरिचित होता हुआ
आकाश...

अवचेतन में
सुगबुगाता है
एक मोरपंखी स्वप्न
थोड़ा और
और थोड़ा ऊपर
पगडंडी ख़त्म होगी यह
एक ख़ूबसूरत गाँव में
नहीं होता कभी कोई
उदास यहाँ
टेरती रहती हैं ऐसे
सम्मोहक गीत हवाएँ
लांघना नहीं पड़ता यहाँ
रोटी के लिए
हर रोज़
एक नया रेगिस्तान...
चिड़ियों की तरह
तनाव और चिंताओं से मुक्त
हो जाता है जहाँ मनुष्य...

उस स्वप्न का नशा
उस स्वप्निल गंध का मोह
तोड़ रहा है मुझे
उस आधार-शिविर से
विदा किया था जिसने मुझे
अंतिम बार
डबडबाई आंखों से...
इतना उदास तो
कभी नहीं हुआ था
वह आधार-शिविर
जिसने मुझे
नित नई ऊंचाइयों के
आरोहण का
दिया था हौसला...

लेकिन अब
भूल जाना चाहता हूँ मैं वह सब
टूट जाना चाहता हूँ उस आधार से
अंतरिक्ष के
किसी मुक्त उपग्रह की तरह...
जीना और चलते रहना चाहता हूँ
अपनी तमाम विडम्बनाओं के साथ
उस एक ख़ूबसूरत गाँव की प्रतीक्षा में
नहीं सोचता कभी कोई
अतीत के बारे में
जहाँ।