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आधा-अधूरा / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
तुम झुके ही थे कि मुझे
दिख गया आधा-अधूरा चाँद
सिहर उठी देह
वह आधा-अधूरा इतना पूरा था कि
मुझे पूरा देखने की इच्छा न रही
चाँद पर बहुत देर तक ठहरते
नहीं बादल
शरारती हवाएँ उन्हें उड़ा देती हैं
चाँद का काम है दिखना
वह न दिखे तो पृथ्वी पर
छा जाता है अन्धेरा
जीवन भर चलता रहता है
चाँद से लुका–छिपी का खेल
मुश्किल तब होती है जब आ जाती है
अमावस्या
और हम चाँद को ढूँढ़ते रह जाते हैं