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आधा आदमी / महेश उपाध्याय

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आज का जीवन धुँधलका हो गया है
आदमी कुछ और हलका हो गया है
इस कदर मौक़ा परस्ती छा गई है
आधुनिकता आदमी को खा गई है

एक अन्धी कोठरी की बेहयाई
एक फ़ुट कपड़ा पहन कर उतर आई
यूँ हवा में कनखियाँ बोने लगी है
धूप के भी गुलगुली होने लगी है

आदमीयत को समय ने कस लिया है
रोशनी को कालिमा ने डस लिया है
आदमी का पेट अन्धा हो गया है
गिड़गिड़ाना एक धन्धा हो गया है

नाम लेकर काम सीधे हो रहे हैं
काम भी क्या? दाम सीधे हो रहे हैं
रो रही सिर पीटकर ईमानदारी
अब कला में भी नहीं है कलाकारी

क्योंकि उससे दुश्मनी बढ़ने लगी है
दुश्मनी की बेल सिर चढ़ने लगी है
आदमी को आज यह क्या हो गया है
कौन-सा वह तत्त्व है जो खो गया है

खोखला जो कर रहा है ज़िन्दगी को
भर गया सारे बदन में गन्दगी को
क्यों हुआ है आदमी का सिन्धु छोटा
घिस गया सारा खारापन हुआ खोटा

वस्तुएँ जब आदमी को खींचती हैं
गला लोहे की उँगुलियाँ भींचती हैं
मारती है आँख जब सुविधा कुमारी
जागती है आदमी की समझदारी

तब सयाने स्वार्थ समझौत उपजते
कान में जो झुनझुने की तरह बजते
चाटुकारी छाँटती है काटती है
आदमी को आदमी में बाँटती है

आदमी तब आदमी रहता नहीं है
इस दुरंगे रंग को कहता नहीं है
इसलिए कमज़ोर होता जा रहा है
एक झूठी हेकड़ी दिखला रहा है

पेट की दुनिया बढ़ाता जा रहा है
और दलदल में समाता जा रहा है
हर बदन से इसलिए बू आ रही है
इसलिए इनसानियत घबरा रही है

पेट जब तक इस तरह बढ़ता रहेगा
एक कुत्ते की तरह लड़ता रहेगा
और कहना, भौंकना होता रहेगा
एक ज़िन्दा लाश को ढोता रहेगा

आदमी के बीच में दूरी रहेगी
स्वार्थ परता एक मजबूरी रहेगी
आदमी के शीश पर बादल रहेंगे
शीश सारे वक़्त के कायल रहेंगे