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आधा पेट पानी सूखी रोटियाँ / ब्रजमोहन

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आधा पेट पानी सूखी रोटियाँ चबानी, भाई !
कब तक होगी ज़ालिमों की मनमानी
कोई बेचे ख़ून कोई राजा कोई रानी, भाई !
कब तक होगी ज़ालिमों की मनमानी

     घर से गया था भाई शहर अकेला
     लेके मन में रे घर-ख़ुशियों का मेला
     चिट्ठियों में आए जैसे धुएँ का शहर है
     ज़िन्दगी बदन में रे साँप का ज़हर है
 चिमनी में धक्-धक् जले रे जवानी, भाई !

     मोहर लगाई हर बार बड़े चाव से
     कोई तो निकालेगा रे काँटा अब पाँव से
     घर की दीवार हर बार हिली ज़ोर से
     घरणी के हाथों को भी देखा जब गौर से
बची नहीं उँगली में प्यार की निशानी, भाई !

     पिंजरे में जान, कहाँ उड़ गया जीवन
     बून्द-बून्द करके निचुड़ गया जीवन
     कैसे हैं मुनाफ़ों के ये कैसे सब जाल रे
     नदियों के देश में ही पड़ते अकाल रे
बहे रे पसीना मौज करे बे-ईमानी, भाई !

     आसमान देख-देख आँख पथराई रे
     जागे हुए सपनों को नीन्द नहीं आई रे
     उल्लुओं की आँख का अन्धेरा हुआ जीवन
     टूटे हुए पत्तों-जैसा आता है रे सावन
आधी-आधी रात मन कहे आग-पानी, भाई !