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आधा बिस्कुट / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

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मैं सोया हूँ और दरो-दीवार चलने लगे
खिड़कियाँ अपनी जगह मौजूद कहाँ है ?
माँ ने मुझे दो मिठाइयाँ क्यों दी ?
जबकि भइया को सिर्फ़ एक
राखी बांधी है बहन ने आज
गुम हो गया दिन पलों के बीच कहीं
चाँद जन्मा, खिल गई शाम
घर आ गए स्कूल से बाबूजी भी
मै एक छोटा सा-बच्चा
गोद में भर लिया उन्होंने
जैसे दांत में फसा मांस का टुकडा
जैसे मुँह में बिस्कुट का आधा हिस्सा
सदियों का सुख सिमट आया इस पल में

उनकी आंखों में कायनात है शायद
हर कोई मौजूद है इसमे
खोज ही रहा था अपने आप को मैं
की वक्त ने गालों पे थप्पड़ मारा
जल गई नींद घर के चूल्हे में
उस चूल्हे में,
जहाँ लकडियों के साथ-साथ
जलता है माँ का दिल भी
और अधमरे अरमान
उड़ते हैं धुंआ बन कर

मैं अब भी सो रहा हूँ पर आँखें खुली हैं
खिड़कियाँ अपनी जगह है
और दरो-दीवार भी वही
हथेलियों पर चीटियाँ रस चाट रही है
कलाई पर अब भी मेरे राखी है
निकल गया दांत में फसा मांस का टुकडा
वक्त के मुँह में बिस्कुट नहीं है
'आधा बिस्कुट' है मेरे हाथ में अब भी
यही 'आधा बिस्कुट' मेरा जीवन है।