आज और कोई नही है, सोये हुये घर का नीला जल,
बरामदे की ठण्डी देह पर, आधी रात देवता के दीपक में —
हाथों पर खेले जा रही है हवा ।
आज शान्त रहकर सोचो, यह रात, मृदु जल की तरंगें,
बिल्कुल तन्हा पेड़,
कभी कभी मै किसके पास जाऊँ,
घर की देह पर सो रहा है छाया भरा प्रवाहित झरना,
वक्षस्थल पर खेले जा रही है हवा ।
दोनों लोग आसपास, बीच में क्या नहीं है कोई राही,
अब खोलों आवरण,
देवता को देख लेने दो दोनों आँखे भरकर
ओस के क़दमों की आहट, सुदूर अस्थिर जलधि
सिर्फ बहती जा रही है हवा ।
आज और कोई नही है, कभी कभी किस के पास जाऊँ मै ?
मूल बांग्ला से अनुवाद : जयश्री पुरवार