आधे कच्चे आधे पक्के / सरोज मिश्र
आधे कच्चे आधे पक्के, घर की खुली हुई खिड़की!
उस खिड़की से महका करती सोंधी मिट्टी-सी लड़की!
मृगनयनी-सी नहीं मगर वह, ख़ुश्बू में कस्तूरी थी!
चन्द्र कलायें मद्धिम लेकिन किरण-किरण सिंदूरी थी!
चितवन उसकी फीका शरबत लेकिन नयन कटोरों में
शर्म हया आंसू के जैसी हर इक चीजें ज़रूरी थी!
अनुचित आवेदन पर जैसे खट्टी मीठी हो झिड़की!
उस खिड़की से महका करती सोंधी मिट्टी-सी लड़की!
निश्छल इतनी बनकर बैठे नागफनी पर तितली-सी
महुआ बनकर चू जाती है गुड़ में घुलती इमली सी
वक़्त जुलाहे ने रेशम के लालच लाखों दिए मगर
काते सच का सूती धागा, चौबीस घण्टे तकली सी!
देवालय के द्वार भगत के मन में, श्रद्धा-सी धड़की!
उस खिड़की से महका करती सोंधी मिट्टी-सी लड़की!
एक रोज़ वह भी फागुन का रंग चढ़ाकर लाल हुई!
निर्धनता का बोझ उठाये काया मालामाल हुई!
गाँव गली चरचे के परचे बांटे ख़बर नबीसों ने,
उमर गुजरिया जन्मपत्र में जिस दिन सोलह साल हुई!
बड़े बड़ों के हाँथ न आई छोटे घर की ये बड़की!
उस खिड़की से महका करती सोंधी मिट्टी-सी लड़की!