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आनंद मजहबों में सुकूँ मत तलाश कर / आनंद कुमार द्विवेदी

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जब तक है जाँ बवाल हैं सारे जहान के,
कितने ही ख़्वाब देख लिये इत्मिनान के।

ऐ जिंदगी ठहर तू जरा , सोच के बता ,
कब हो रहे हैं ख़त्म ये दिन, इम्तिहान के ।

दुनिया के गलत काम का अड्डा बना रहा,
हम चौकसी में बैठे रहे जिस मकान के ।

जो अनसुने हुए हैं उसूलों के नाम पर,
मेरे लिए वो स्वर थे सुबह की अज़ान के ।

तेरे लिए भी ग़ैर हैं, खुद के ही कब हुए
ना हम ज़मीन के रहे, न आसमान के ।

‘आनंद’ मजहबों में सुकूँ मत तलाशकर,
झगड़े अभी भी चल रहे गीता कुरान के ।