एक
सचमुच, मैं एक अन्धेरे वक़्त में जी रहा हूँ !
सीधा शब्द निर्बोध हैं। बिना शिकन पडा माथा
लापरवाही का निशान। हंसने वाले को
ख़ौफ़नाक ख़बर
अभी तक बस मिली नहीं है।
कैसा है ये वक़्त कि
पेड़ों की बातें करना लगभग ज़ुर्म है
क्योंकि उसमें कितनी ही दरिन्दगियों पर ख़ामोशी शामिल है !
बेफ़िक्र सड़क के उस पार जानेवाला
अपने दोस्तों की पहुँच से बाहर तो नहीं चला गया
जो मुसीबतज़दा हैं ?
यह सच है : कमा लेता हूँ अपनी रोटी अभी तक
पर यक़ीन मानो : यह सिर्फ़ संयोग है । चाहे
कुछ भी करूँ, मेरा हक़ नहीं बनता कि छककर पेट भरूँ ।
संयोग से बच गया हूँ ।
(क़िस्मत बिगड़े तो कहीं का न रहूँ)
मुझसे कहा जाता है : तुम खाओ-पीओ ! ख़ुश रहो कि
ये तुम्हें नसीब हैं ।
पर मैं कैसे खाऊँ, कैसे पीऊँ, जबकि
अपना हर कौर किसी भूखे से छीनता हूँ, और
मेरे पानी के गिलास के लिए कोई प्यासा तड़प रहा हो ?
फिर भी मैं खाता हूँ और पीता हूँ ।
चाव से मैं ज्ञानी बना होता
पुरानी पोथियों में लिखा है, ज्ञानी क्या होता है :
दुनिया के झगड़े से अलग रहना और अपना थोड़ा सा वक़्त
बिना डर के गुज़ार लेना
हिंसा के बिना भी निभा लेना
बुराई का जवाब भलाई से देना
अपने अरमान पूरा न करना, बल्कि उन्हें भूल जाना
ये समझे जाते ज्ञानी के तौर-तरीके।
यह सब मुझसे नहीं होता :
सचमुच, मैं एक अन्धेरे वक़्त में जी रहा हूँ !
दो
शहरों में मैं आया अराजकता के दौर में
जब वहाँ भूख का राज था ।
इनसानों के बीच मैं आया बग़ावत के दौर में
और उनके गुस्से में शरीक हुआ ।
ऐसे ही बीता मेरा वक़्त
जो मुझे इस धरती पर मिला हुआ था ।
जंगों के बीच मुझे रोटी नसीब हुई
क़ातिलों के बीच मुझे डालने पड़े बिस्तर
प्यार के साथ पेश आया मैं लापरवाही से
और क़ुदरत को देखा तो बिना सब्र के ।
ऐसे ही बीता मेरा वक़्त
जो मुझे इस धरती पर मिला हुआ था ।
मेरे वक़्त में 'सड़कें' दलदल तक जाती थीं
जुबान ने मेरा भेद खोला जल्लादों के सामने
शायद ही कुछ कर पाया मैं । पर हुक़्मरानों को
राहत मिलती है मेरे बिना, ये उम्मीद तो थी ।
ऐसे ही बीता मेरा वक़्त
जो मुझे इस धरती पर मिला हुआ था ।
ताक़त नाकाफ़ी थी । मंज़िल
दूर कहीं दूर थी ।
साफ़-साफ़ दिखती थी, हालाँकि शायद ही
मेरी पहुँच के अन्दर थी । ऐसे ही बीता मेरा वक़्त
जो मुझे इस धरती पर मिला हुआ था ।
तीन
तुम, कभी तुम जब उस ज्वार से उबरोगे
जिसमें हम डूब गए
याद करना
जब तुम हमारी कमज़ोरियों की बात करो
उस अन्धेरे वक़्त की भी
जिससे हम बचे रहे ।
हमें तो गुज़रना पडा, जूतों की तुलना में कहीं ज़्यादा
मुल्क़ बदलते हुए
वर्गों के बीच युद्धों से होकर, लाचार
जब वहाँ सिर्फ़ अन्याय हुआ करता था, पर गुस्सा नहीं ।
हालाँकि हमें पता तो है :
कमीनेपन से नफ़रत से भी
चेहरा तन जाता है ।
नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ गुस्से से भी
आवाज़ भर्रा सी जाती है। हाय रे हम !
हम, जो ज़मीन तैयार करना चाहते थे बन्धुत्व के लिए
बन्धु तो हम नहीं बन सके ।
पर तुम, जब वो वक़्त आए
कि इनसान इनसान का मददगार हो
याद करना हमें
कुछ समझदारी के साथ ।
रचनाकाल : 1934-38
मूल जर्मन भाषा से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य