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आने वाला ख़तरा / रघुवीर सहाय

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इस लज्जित और पराजित युग में
कहीं से ले आओ वह दिमाग़
जो ख़ुशामद आदतन नहीं करता

कहीं से ले आओ निर्धनता
जो अपने बदले में कुछ नहीं माँगती
और उसे एक बार आँख से आँख मिलाने दो

जल्दी कर डालो कि फलने फूलने वाले हैं लोग
औरतें पिएँगी आदमी खाएँगे-- रमेश
एक दिन इसी तरह आएगा-- रमेश
कि किसी की कोई राय न रह जाएगी-- रमेश
क्रोध होगा पर विरोध न होगा
अर्ज़ियों के सिवाय-- रमेश
ख़तरा होगा ख़तरे की घंटी होगी
और उसे बादशाह बजाएगा-- रमेश