भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आन्ना अख़्मातवा के लिए-3 / ओसिप मंदेलश्ताम
Kavita Kosh से
|
विकृत हैं चेहरे की रेखाएँ
बूढ़ों की-सी है मुस्कान
सचमुच में यह नर्म-चिरैया
भारी पीड़ा से हलकान
इस कविता पर टिप्पणी करते हुए आन्ना अख़मातवा ने अपने संस्मरणों में लिखा-- "मैं तब मन्देलश्ताम के साथ स्टेशन पर फ़ोन करने गई थी । वे पारदर्शी काँच के पीछे से केबिन में मुझे फ़ोन करते हुए देख रहे थे । जब मैं केबिन से बाहर निकली तो उन्होंने मुझे ये चार पंक्तियाँ सुनाईं ।"
(रचनाकाल : 1915)