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आन सभ किछु / राजकमल चौधरी

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आन सभ किछु बिसरि गेल अछि
एहि निद्रामे
आन सभ किछु धयने अछि एकटा अदृश्य
रूप
-एकटा शब्दहीन कविता
जेना, सिनेह...
एहि निद्रामे आन सभ किछु
एकटा अदृश्य रूप
सिनेह
माया
ओछान पर औनाइत भरि राति अव्यक्त
अनभिव्यक्त देह
आन सभ किछ जेना, सिनेह
हमरा सँ जँ ओ सभ लोक-वेद
जे नहि छलाह-
जखन कमला-नदीक ओहि घाट पर बन्हले
डूबैत छल नाह
आँखि मुनने देखैत रहलाह ई दृश्य
साग्रह
सखेद
ओ सभ लोक-वेद
हमरा सँ जँ पुछताह आब हमर एहि निद्राक
कारण
एकादशीक प्रात माछ-मूड़ाक पारण
-हम उत्तर नहि देब
देबा-लेबाक ई सांसारिक व्यवस्था
आब एहि वयसमे
स्वाभाविक नहि हैत
निद्राक अतिरिक्त आन सभ किछु अनर्गल
जेना, सिरमामे सूतल
कारी करैत
स्वाभाविक नहि हैत...
ने सिनेह, ने माला, ने अव्यक्त देह पर
पसरल आन देहक घाम
आन देहक नाम
जेना, सिरमामे कारी करैत

(आखर, राजकमलक स्मृति अंक: मई-अगस्त, १९६८)