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आपकी शह पर कुएँ का जल समूचा पी गयी / विनय कुमार
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आपकी शह पर कुएँ का जल समूचा पी गयी।
लीजिए मरती हुई दीवार फिर से जी गयी।
उठ गया है गाँव से पानी पिलाने का रिवाज़
आपके ही रास्ते पर अपकी बस्ती गयी।
दृष्टि की दुखती दरारों से परेशां हम हुए
आप कहते हैं, नदी की रोशनी बेची गयी।
सोचते ही सोचते तलवार का लोहा गया
देखते ही देखते दरबार की चांदी गयी।
शोर का कर्फ्यू सलीबों पर टँगीं खामोशियाँ
कमसुखन हैं जो समझ लें उनकी आज़ादी गयी।
डुबकियाँ महँगी पड़ीं मुझको सुनहरी झील की
हर ग़ुस्ल के साथ रफ़्तारे क़लम घटती गयी।
साथ हैं डालें, हर पत्ते, खिले गुल, पके फल
जड़ मगर मुश्किल अंधरों में अकेली ही गयी।