भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आपु हि कैसे आपु दुरावै / स्वामी सनातनदेव
Kavita Kosh से
राग ईमन-कल्याण, आढ़ चौताल 30.8.1974
आपुहि कैसे आपु दुरावै।
जो त्यागै अपुनो अपुनोपन आपुहिं आपु लखावै॥
अपुनेपन में छिप्यौ आपु ही अपुनो आपु भुलावै।
जो अपुनोपन जाय तुरत ही आपु आपु में पावै॥1॥
आपुहि में है अपुनो प्रीतम, ताकी प्रीति दृढ़ावै।
आपु जाय फिर रहै प्रीति ही, प्रेमी कहूँ न पावै॥2॥
प्रेमी अरु प्रीतम द्वै तनु में प्रीतिमात्रा सरसावै।
प्रीतिमात्र हैं प्रेमी-प्रीतम, तत्त्व प्रीति कहलावै॥3॥
प्रीति हि आपु, प्रीति ही प्रीतम, प्रीति ही केलि सुहावै।
है सब प्रीतिमात्र की लीला, जो रस-ब्रह्म कहावै॥4॥