आप्रवासियों का संघर्ष / मुनीश्वरलाल चिन्तामणि
आओ, शत-शत प्रणाम करें
उन कर्मठ पूर्वज़ों को, आओ, शत-शत प्रणाम करें
उनके ही श्रम की चट्टानों से
बही थी विकास की धारा यहाँ,
उनके ही श्रम-सीकर में
निहित थी भलाई सब की
कोड़ों की मार से
लोहू-लुहान हुआ था
देह उनकी
बढ़ती गई थी यहाँ
बाढ़ ज़ोर-ज़ुल्म-दहशत की
पर वे चलते गए, चलते गए
जीवन-पथ पर अपने
टूटा नहीं साहस उनका
टूटा नहीं धीरज-संस्कार
हुआ था मानव का दमन यहाँ
हुआ था अधिकार का हनन यहाँ
शोषकों को नहीं मिली थी
उनके धैर्य की थाह
सूरज ने दी थी शक्ति उनको,
चाँद ने दी थी शीतलता उनको,
वायु की लोल लहर ने
सहलाया था
उनके दुख-दर्दों को,
कल-कल स्वर नदियों का
बँधाया था साहस उनका
दी थी प्रेरणा भी उनको ..चट्टानों के वक्ष, चीर...
आगे बढ़ने के लिए
बन गई थी यह भूमि
नियति उनकी
छा गई थी जीवन में उनके
घनघोर घटाएँ
भटक रहे थे,
किसी प्रकाश की तलाश में
मार-प्रताड़न से
नहीं हुआ था अंत
उनके जीवन का
इस धरती को सींचा था
अपनी श्रम-बूँदों से
जो बदल गए थे हीरे-मोती में
ये हीरे-मोती
बढ़ाते रहे शोभा
मालिक की तिजोरी की
पर वे निर्मम मालिक
नहीं सुन पाए
मौन आर्तनाद
उनकी आत्माओं का
जब भी कोई
वाजिब आवाज़ उठी,
शोषण के विरोध में
गला घोंटा गया
उस आवाज़ का
पर वे चलना नहीं भूले थे
वे चलते गए, वे चलते गए
भूल चुके थे कुछ लोग
साँस लेते हैं मज़दूर भी
भूख लगती है उन्हें भी
ठंड लगती है उन्हें भी
उनकी भी होती हैं इच्छाएँ
उनकी भी होती हैं तकलीफें
हाय, जीवन की साधें उनकी
भग्नावशेष मूर्तियों की तरह
मौन खड़ी रहीं
उलीचते रहे वे
निज कष्टों का सिंधु
याद आता उनको
वह एकलव्य का अँगूठा,
याद आता उनको
अभिमन्यु का
चक्रव्यूह में फँसना
पर कुछ युवक साहसी
सामने आए
फेंक राम-भरोसे के चोले
निडर होकर बाहर आए
इंकार किया
घुटनों के बल झुकने से,
अपमान की घूँट पीने से
सही दिशा दिखा दी
आत्म-निर्भर होने की
मुक्त होने की ।
आई शक्ति उनमें
आल्हा-ऊदल की
वीर कुँवरसिंह की
बढ़ रहे थे साहस के साथ
रहे अभय हर समय
निकाल कर फेंक दिया
शर्तबन्द के जुए को
लात मारी
ज़मींदारों की तानाशाही को
शोषण की भट्टी से
निकलने के
बता दिए उपाय
उन तपस्वियों को, उन कर्मयोगियों को
आओ, शत-शत प्रणाम करें ।