भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आप भी इतने ख़ास लगेंगे / हरिवंश प्रभात
Kavita Kosh से
आप भी इतने ख़ास लगेंगे, मुझको तो मालूम न था।
फूल के अंदर ख़ार रखेंगे, मुझको तो मालूम न था।
ख़ैर-कुशल होते रहते हैं, जाने में अनजाने में,
दिल में भी दीवार रहेंगे, मुझको तो मालूम न था।
शायद ही मैं सो पाया हूँ, बेफिक्र किसी के कारण ही,
मोम पिघल पाषाण बनेंगे, मुझको तो मालूम न था।
दिन के उजाले में भी कोई, रात अंधेरी दे देगा,
सूरज को अब चाँद ग्रसेंगे, मुझको तो मालूम न था।
पर उपकार से यह मेरा मन, निर्मल बहती गंगा है,
आप उसी में हाथ धोएँगे, मुझको तो मालूम न था।
है ‘प्रभात’ का दिल बेचारा, पानी-सा बहने वाला,
बहने में फिर रोक लगेंगे, मुझको तो मालूम न था।