भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आफ़ताब है वो मेरा सहर कर रहा है / किरण मिश्रा
Kavita Kosh से
आफ़ताब है वो मेरा सहर कर रहा है ।
दीदार धीरे-धीरे असर कर रहा है ।।
न दिल पास में है ना धड़कन बची है,
मुहब्बत का मौसम ग़ज़ल गा रहा है ।
सँवरती हूँ जब भी आईने के सामने,
प्यार से उसके मेरा बदन खिल रहा है ।
शबनम बन बिखरती फिजाओं में हूँ,
फ़रिश्ता हिफ़ाजत मेरी कर रहा है ।
प्यार मैं भी करती हूँ उससे इस तरह,
जैसे मस्जिद में कोई दुआ कर रहा है ।।