आफ़त में नहीं कहो है किसकी जान / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
आफ़त में नहीं कहो है किसकी जान
हम भी परेशान यहाँ तुम भी परेशान
वहन करे वो कैसे खर्चों का भार
छोटा-सा वेतन मंहगाई की मार
महिनों से चुका नहीं पसरटी उधार
बनिए ने दे दी है तीखी फटकार
बज रहे कनस्तर सब ख़ाली भड़-भड़
ऐसे में आने थे घर में मेहमान
हम भी परेशान...
आज का समय देखो कैसा प्रतिकूल
प्रतिभाएँ छान रहीं दर-दर की धूल
चलते पुरज़ों को सुविधाओं के फूल
सीधे-सच्चों को दुविधाओं के शूल
कोयल का कुंठित मन करता है प्रश्न
हो रहे पुरस्कृत क्यों कौवों के गान
हम भी परेशान...
जीवन के मंच पर सचाई हुई हूट
खूब दाद पाते हैं छल-प्रपंच लूट
झूठों को मनमानी की पूरी छूट
ईमानों के मटके रोज़ रहे फूट
चोरी की रपट लिखा कर होगा क्या
खींच रहा चोर लो दरोग़ा के कान
हम भी परेशान...
आई है ये कैसी जनतंत्री भोर
अन्यायी अँधियारा फैला हर ओर
इतराते गुण्डे, डाकू, लुच्चे, चोर
क़ायम है अभिमानी असुरों का ज़ोर
भक्तों की सारी फ़रियादें बेकार
है लम्बी छुट्टी पर शायद भगवान
हम भी परेशान...