आबि रे कागा सगुनियाँ / अंगिका लोकगीत
प्रस्तुत गीत में पति-पत्नी में मनमुटाव के कारण पति का रूठकर कहीं चले जाने तथा लड़के के बिना ‘खाट-खटोले’ के टूट जाने का उल्लेख हुआ है। अन्त में, पत्नी की मनःकामना पूरी होती है और वह अपने लड़के का विवाह-संस्कार करने लगती है। घिउढारी के लिए उसका भाई अभी नहीं आया है। वह सोचती है कि अगर भाई बिना कुछ लिये खाली हाथ भी चला आता, तो मैं अपनी साड़ी रँगवाकर कहती कि इसे मेरे भैया ले आये हैं। लेकिन, समय पर भाई आ जाता है और वह अपनी बहन से साड़ी पहनने का आग्रह तथा मन के विरोध को छोड़ने का अनुरोध करता है।
घिउढारी के समय लड़की की माँ अपने भाई के यहाँ से लाई हुई साड़ी ही पहनती है। उसी साड़ी को पहनकर वह अपने पति के साथ इस विधि को संपन्न करती है।
आबि<ref>आकर</ref> रे कागा सगुनियाँ<ref>सगुन करने वाला</ref>, नित उठि भाकै<ref>बोलता है</ref> रे।
ललना, मोर घर उचित कलेआन<ref>कल्याण; यहाँ यज्ञ से तात्पर्य है</ref>, कहाँ कहाँ नेउतब रे॥1॥
नैहर नेउतब नैहर लोक, तब सासुर लोक रे।
ललना, पाछुक<ref>पीछे; उसके बाद</ref> नेउतब ननदक<ref>ननद के</ref> भैया, कि जिनि<ref>जिन से</ref> रूसन मोर रे॥2॥
नहिं अप्पन अयल नैहर लोक, नहिं अयल सासुर लोक रे।
ललना, नहं ऐलै ननदक भैया, कि जिनि सेॅ रूसन मोर रे॥3॥
टूटी गेलै खाट खटोलबा, अप्पन होरिला बिनु रे।
ललना, लाल पीयर भेल मलिन, कि अप्पन सहोदर बिनु रे॥4॥
चौदहिं कोस सेॅ आबैत<ref>आते</ref> भैया, माड़ब चढ़ि बैठत रे।
ललना, अपनो सारी रँगबाबितों, भैया नाम लेतऊँ रे॥5॥
खोलू खोलू बहिनी कुसुम साड़ी, पहिरु पियरी साड़ी रे।
ललना, छोड़ी देहो मन के बिरोध, भैया सेॅ मिलन करु रे॥6॥