देवराज
जबेॅ-जबेॅ तोरोॅ आसन डोललौं
तोहें भेजलोॅ छौ
कोय अप्सरा-धरती पर
पुरखा-दर-पुरखा सेॅ
यहेॅ सुनतेॅ ऐलोॅ छियै हम्में
आखिर
तोहें कबेॅ तांय बैठलोॅ रहवौ
हेन्है केॅ कुण्डली मारी।
जरा उल्टियो ताकोॅ
संभलोॅ
धरती पर
रथोॅ के फहरैतें धजा
हमरोॅ लोगोॅ के
जोत सेॅ चमकतें सरंग
ओकरे वेगोॅ सेॅ काँपतें चैवाय
आरो ठनके रं बाजतै
कवच-कुण्डल सेॅ
छिनमान बिगुले जकां
हों
सब्भे आवी रहलोॅ छौं तोरे दिश
हे देेवराज।