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आभार देना याद रखता हूँ / अंकित काव्यांश
Kavita Kosh से
गीत सुन
उपलब्धियां जब भी बुलातीं हैं
मैं तुम्हे आभार देना याद रखता हूँ।
साथ मेरे
गुनगुनाता है सफ़र का शोर हर पल
मील का पत्थर किनारे पर चिढ़ाता फिर गुज़रता।
पाँव अनियंत्रित
भटकते हैं अपरिचित पन्थ पर जब
तब अधूरा गीत अपनी पूर्णता को प्राप्त करता।
और मन की
बाँसुरी जब स्वर सजाती है
होंठ पर तुमसे हुए संवाद रखता हूँ।
काश हम दोनों
नदी होते तटों को ध्वस्त करते
प्यार की अदृश्य धारा ढूंढते सब तब मिलन में।
मांगते सब
मुक्ति आकर घाट पर मेरे तुम्हारे
और हम उन्मुक्त हो फिरते सदा जीवन गगन में।
जब पसंदीदा
शहर की बात आती है
सामने सबके इलाहाबाद रखता हूँ।