आमद-ए गुल है मेरे आने से / अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी
आमद-ए गुल है मेरे आने से
और फसले ख़िज़ाँ है जाने से
मैं चला जाऊँगा यहाँ से अगर
नहीं आऊँगा फिर बुलाने से
तुम तरस जाओगे हँसी के लिए
बाज़ आओ मुझे रुलाने से
हो गया मैं तो ख़नुमाँ -बरबाद
फ़ायदा क्या है दुख जताने से
उस से कह दो कि वक़्त है अब भी
बाज़ आ जाए ज़ुल्म ढाने से
वरना जाहो हशम का उसके यह
नक़्श मिट जाएगा ज़माने से
हम भी मुँह मे ज़बान रखते हैँ
हमको परहेज़ है सुनाने से
या तो हम बोलते नहीं हैं कुछ
बोलते हैं तो फिर ठेकाने से
एक पल में हुबाब टूट गया
क्या मिला उसको सर उठाने से
अशहब-ए ज़ुल्मो जौरो इसतेहसाल
डर ज़माने के ताज़याने से
क़फ़से-उंसरी को घर न समझ
कम नहीं है यह ताज़ियाने से
रूह है क़ैद जिस्म-ए ख़ाकी में
कब निकल जाए किस बहाने से
हँस के बिजली गिरा रहे थे तुम
है जलन मेरे मुस्कुराने से
क्यों धुआँ उठ रहा है गाह-ब-गाह
सिर्फ़ मेरे ही आशियाने से
लम्ह-ए फिक्रिया है यह बर्क़ी
सभी वाक़िफ हैं इस फ़साने से