आमेर में तीसरे पहर (कविता) / सुरेश विमल
एक अद्भुत अनुभव है
विचरना
तीसरे पहर आमेर में
और बांचना
दुर्ग की विशाल दीवारों पर
काई में लिपिबद्ध
शताब्दियों का इतिहास
तीसरे पहर
आमेर में महान दुर्ग
निहारता है
मावठे के कांपते जल में
अपने बूढ़े होते हुए
चेहरे की झुर्रियाँ
बहुत बेचैन लगता है आमेर
तीसरे पहर
अतीत और वर्तमान के बीच
डूबता उतराता हुआ सा
साकार हो उठता है
जैसे अनायास
राजसी वैभव से सम्पन्न
समृद्ध अतीत इसके सामने
शीशमहल के अनगिनत शीशों में
अंगड़ाइयाँ लेती हैं
स्वप्न सुंदरियाँ साक्षात
प्रशस्त चौक में
हिनहिनाते हैं अश्व
और चिंघाड़ते हैं
विशालकाय हाथी...
सजी-धजी पालकियों से
छन-छन कर आती है
जड़ाऊ कंगनों की खनक
एक सम्मोहक गंध
बाँध लेती है समग्र परिवेश को
शिलादेवी के मंदिर से उभरते हैं
प्रार्थना के मंगलमय स्वर...
चैतन्य और सहज बनाते हुए
दुर्ग का परिवेश...
सिंह-द्वार से प्रवेश करते हैं
हाथियों पर आरूढ़ प्रजा-जन
जिनके मन में है श्रद्धा
उत्सुकता है
और एक सम्मोहन है
आमेर के लिए
एक क्षण
अद्भुत अनुरागी है आमेर
तो दूसरे क्षण
घोर वीतरागी...
सचमुच बहुत कठिन है
पढ़ पाना आमेर का मन
तीसरे-पहर।