आम्रपाली / राजगीर / भाग 1 / ज्वाला सांध्यपुष्प
प्रणाम पहिल पृथ्वी के, ज्ञानी गुरु समान।
माए-बाप के चरण छुउँ, लगूँ गोर भगवान॥
लगूँ गोर भगवान, कवित् कुण्डलिया छुए अकास।
चलित्तर अम्रपालि के बने जिनगी में प्रकाश॥
नारी-नर में भेद न, एक्के हए दुन्नो के काम।
नारी के जे पुजे, हुनका हम्मर हए प्रणाम॥1॥
‘अम्रपाली’ हम लिखे के, हिम्मत कइली नदान।
डूबे से बचएतन अब, ओहे कृपा निधान॥
ओहे कृपानिधान, देतन ज्ञान अज्ञानी के।
लिखुँ बज्जिका में काव्य, बर दे अज्जु अभिमानी के॥
मग्गह में लोग न नचइअ, अजुका हबे देबारी।
हए प्रसन्न अजातशत्रु बसा दिल में अम्रपाली॥2॥
लाल किला सन उँच महल में रहइअ एगो सुकुमार।
खुब लार-चार के जुकुर, हए ऊ राजकुमार॥
हए ऊ राजकुमार, देह काठी से मजगुत।
बाप से मिले सुरत, दिल में अन्तर हबे बहुत॥
बिना बात बाप के, बजरा मार करे कमाल।
कएलक बन्द जेह्ल में, केतना सुन्दर हए उ लाल॥3॥
बिम्बसार ह बाप ओक्कर, इ राजगीर राजधानि।
बरिस अट्ठारह के क्षत्री, हए ऊ बर अभिमानि॥
हए उ बर अभिमानी, रोज काम बिगारे अप्पना।
अम्रपाली के अंक, लेबे के देखे सपना॥
रात-रात भर मंत्रि सङ्, उ करे खूब अभिसार।
दसा देख राज के, कनइ’ राजा बिम्बसार॥4॥
रङ-बिरङ के फूल सूङे, कोन डार्ह पर न बइठल।
गोर छुआबे बाप से, हए उ बहुते अँइठल॥
हए उ बहुते अँइठल, रहइअ मद में डूबल।
सुझइअ न अब काँटा, बुझाइअ न कोनो दलदल॥
सात रङ के रानी हुए, पटरानी सन् रक्खे तुरङ।
दस किसम रूप बदले, करिया करे केस के रङ॥5॥
बाप बेचारा कनइअ, पाप बरका होएल।
अजातशत्रु बेलज्जा के, कोन नक्षत्र जल्म भेल॥
कोन नक्षत्र जल्म भेल, छिनलक गौतम के दर्शन।
गृध्रकुट पर बइठएले, जहर के देबे परसन॥
आन्हर कएलक बानर, घाव कएलक अपने आप।
रोटी छिन दीन से, मार देलक नेक बाप॥6॥
ठारा हए उ कोठा पर, लम्मा युक्लिप्ट्स नाहित।
झउआ अमलतास सिरिस, में ढुँर्हे रस ऊ काहिल॥
में ढुँर्हे रस ऊ काहिल, गुलमोहर के आग बुझाइअ्।
भम्होरेला दिल के, करिया जहर नाग खोजइअ॥
कएले हर मन-मलिन, रूसल जेन्ना भँओरा।
कि बतिआइ दोस से, उपमंत्रि सुनिद्य सङ ठारा॥7॥
दोस सुनीध उपमंत्री हए, दाँत काटल रोटि।
हए अजात बिसात बनल, सुनीध शतरँज गोटि॥
सुनीध शतरन्ज गोटि, चिक्कन चले चाल चलाक।
बज्जि देस के खिस्सा कह, अजात के करएलक अवाक्॥
कर चरचा सुन्दरि के, बिगारे खुब ओक्कर होश।
काम के लगाम तोर, ‘शत्रु’ के चर्हाबे दोस॥8॥
फूल हए उज्जर लिच्ची के, कनफुल ला तरसे न।
भँओरा सअ सुङेला, बरसे बदरबा बन॥
बरसे बदरबा बन, रोज दरबार लगावे।
बर-बर सामंत सऽ, पालिसो खूब लगाबे॥
पाबे लेल उ रूपधन जाइहन सभे कुछ भूल।
कईसन हए उर्वशी, कइसन उ लिच्छवी के फुल॥9॥
देह हए कि आग ओक्कर, चान दाग ला कनइअ।
तापे ओक्कर रूप-आग, दिल के बरफ जनइअ॥
दिल के बरफ जनइअ लोग गुन गबइअ बज्जी के।
जल्म लेलक सरसत्ती, भाग हए इ लिच्छवी के॥
विद्याधारी, फरहर, सब्भे से उ रक्खे सनेह।
गणतन्त्र के रक्षा लेल, कएले हए उ दान देह॥10॥