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आम आए / योगेन्द्र दत्त शर्मा
Kavita Kosh से
लौटकर बनवास से
जैसे अवध में राम आए,
साल भर के बाद ऐसे ही
अचानक आम आए!
छुट्टियों के दिन
उमस, लू से भरे होने लगे थे,
हम घनी अमराइयों की
छाँह में सोने लगे थे।
मन मनौती-सी मनाता था
कि जल्दी घाम आए!
गरम लूओं के थपेड़ों से भरा
मौसम बिता कर,
ककड़ियाँ, तरबूज, खरबूजे
चले बिस्तर उठाकर।
सोचते थे हम कि कब
वह बादलों की शाम आए!
बारिशों के साथ फिर आया
हवा का एक झोंका,
देर तक चलता रहा फिर
सिलसिला-सा खुशबुओं का!
लाल पीले हरे-
खुशियों से भरे पैगाम आए
चूस लें या काटकर खा लें
रसीले हैं अजब ये
आम है बरसात के बादाम
ढाते हैं गज़ब ये
दशहरी, तोता परी, लँगड़ा
सफेदा नाम आए!