भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आम आदमी / मनोज जैन 'मधुर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अकुलाता है प्राण पखेरू
बैठा तन की जेल में।
जीना दूभर हुआ हमारा
महँगाई के खेल में।

चिन्ताग्रस्त रसोई
किससे अपना
दर्द कहे।
चूल्हा बेबस
चक्की गुमसुम
बेलन रोज़ दहे ।
डूब रही है रोज दिहाड़ी
एक पतीली तेल में।

अकुलाता है प्राण पखेरू
बैठा तन की जेल में।
जीना दूभर हुआ हमारा
महँगाई के खेल में।

मन झरिया का
हुआ कड़ाही से
बतियाने का।
चढ़ते भावों
ने बदला है
स्वाद ज़माने का।
छोंक लगाना मजबूरी है
अब तो रोज़ डढेल में।

अकुलाता है प्राण पखेरू
बैठा तन की जेल में।
जीना दूभर हुआ हमारा
महँगाई के खेल में।

मिलना जुलना
नाता रिश्ता
सब कुछ छूट गया।
नए दौर में
आम आदमी
कितना टूट गया।
सात जनम भी कम लगते हैं
अपनेपन के मेल में।

अकुलाता है प्राण पखेरू
बैठा तन की जेल में।
जीना दूभर हुआ हमारा
महँगाई के खेल में।