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आम औरत / सुदर्शन रत्नाकर
Kavita Kosh से
आम औरत
भोर से साँझ तक
साँझ से देर रात तक
खटती रहती है वह
घर बाहर दो-दो जीवन जीती है वह
बचपन की यादें, रिश्तों का अपनापन
छोड़ कर आती है वह।
नए रिश्तों को अपनाने में
अकेली जूझती है वह
ममत्व लुटाती, घर सँवारती
अपने को भुला देती है वह
मिट जाती है
मिटा देती है अपनी आकांक्षाओं को
जीती है यह औरत केवल अपनों के लिए
जिसके समर्पण का कोई मोल नहीं
बदले में क्या चाहती है वह
बस अपनी पहचान, प्यार और
थोड़ा-सा सम्मान
इस औरत को पति का प्यार मिल जाए तो
यह समर्पित पत्नी है
ससुराल में अपनापन मिल जाए तो आदर्श बहू है
संतान का सुख और सम्मान मिले तो
ममतामयी माँ है
नहीं तो यह आम औरत
एक बँधवा मज़दूर है
जिसकी कोई रिहाई भी नहीं।