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आम का पेड़ / विवेक चतुर्वेदी
Kavita Kosh से
कितना चुप है आज
उदास आम का पेड़
आसाढ़ की बारिश से ठीक पहले,
जो था रंग रस गंध
सब दे चुका बैसाख में
अब कितना खाली है
कितना चुप ।
बस अब दे सकेगा जरा सी छाया
सोचता है आम का पेड़
सोचता है कुछ और फल
जने होते मैंने
तो अंधड़ में झूमता लहराता
अमिया ढूंढते बच्चों की
झोली में झर जाता
जब देने को कुछ नहीं होता
कैसा छाल सा खुरदुरा और सख्त
हो जाता है समय ।
चुप रहकर अगले बरस के
फागुन को सोचता है
आम का पेड़
जब कोयल कूक के मांगेगी
अपना दाय
तब उजास भरी बौर सा
बरस जाएगा
और पत्तों सा हरा
हो जाएगा समय।