आम मौक़ों पे न आँखों में उभारे आँसू / विक्रम शर्मा
आम मौक़ों पे न आँखों में उभारे आँसू
हिज्र जिससे भी हो पर तुझ पे ही वारे आँसू
ज़ब्त का है जो हुनर मैंने दिया है तुमको
मेरी आँखों से निकलते हैं तुम्हारे आँसू
क्यूँ न अब हिज्र को मैं इब्तिदा-ए-वस्ल कहूँ
आँख से मैंने क़बा जैसे उतारे आँसू
दूसरे इश्क़ की सूरत नहीं देखी जाती
धुँधले कर देते हैं आँखों के नज़ारे आँसू
आँख की झील सुखाती है तिरी याद की धूप
मरने लगते हैं वहाँ प्यास के मारे आँसू
बिन तेरे आँखों को सहरा न बना बैठूँ मैं
रोते रोते न गँवा दूँ कहीं सारे आँसू
हिज्र के वक़्त उतर आई कोई शब उसमें
चाँद चेहरे के करीब आये सितारे आँसू
मुझ फ़रेबी को जो तूने ये मुहब्बत दी है
आँख से गिरते हैं अब शर्म के मारे आँसू
रात होती है तो उठती हैं ज़ियादा लहरें
और आ जाते हैं पलको के किनारे आँसू