भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आयल बसन्त ने आयल कन्त भरल जुआनी गलल जा रहल छै / बाबा बैद्यनाथ झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आयल बसन्त ने आयल कन्त भरल जुआनी गलल जा रहल छै
कंचन सन ई कोमल वदन विरह-आगिनसँ जरल जा रहल छै

नित्य जपै छी नटवरनागर अहाँ जे बनल छी तइयो पाथर
काम-वाणसँ बेधल तन-मन मोनक उमंग मरल जा रहल छै

दर्द हमर तँ कियो ने बुझैए-‘कहू हाल की अछि?’ सभ पूछैए
कोना बिताबी राति अन्हरिया ई एकदम ने सहल जा रहल छै

सखिसभ अछि पिया संग बिहँसै देखि-देखिकऽ मोन अछि तरसै
आसेँ काजर नैन लगायल डब-डब नोरेँ दहल जा रहल छै

आम्र-कुन्ज पर कोइली बाजय भ्रमरक गूँजसँ धीरज भागय
किए ने अबै छी यौ निर्मोही दुःखसँ छाती फटल जा रहल छै

मुँह अहँक हम देख ने सकबै कहल-सुनलकेँ माफ अहाँ करबै
आब ने बचब, प्राण हमर तँ नोरक धारमे बहल जा रहल छै