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आया ही नहीं हम को आहिस्ता गुज़र जाना / बशीर बद्र
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आया ही नहीं हमको आहिस्ता गुज़र जाना
शीशे का मुक़द्दर है टकरा के बिखर जाना
तारों की तरह शब के सीने में उतर जाना
आहट न हो क़दमों की इस तरह गुज़र जाना
नश्शे में सँभलने का फ़न यूँ ही नहीं आता
इन ज़ुल्फ़ों से सीखा है लहरा के सँवर जाना
भर जायेंगे आँखों में आँचल से बँधे बादल
याद आएगा जब गुल पर शबनम का बिखर जाना
हर मोड़ पे दो आँखें हम से यही कहती हैं
जिस तरह भी मुमकिन हो तुम लौट के घर जाना
पत्थर को मिरा साया, आईना सा चमका दे
जाना तो मिरा शीशा यूँ दर्द से भर जाना
ये चाँद सितारे तुम औरों के लिये रख लो
हमको यहीं जीना है, हमको यहीं मर जाना
जब टूट गया रिश्ता सर-सब्ज़ पहाड़ों से
फिर तेज हवा जाने किस को है किधर जाना
(१९७०)