आरंभ या अंतिम संस्कार / नंदा पाण्डेय
कितनी सहज और स्वाभाविक
इच्छा थी तुम्हारी
माफ कर दो मुझे
कई दिनों का ठहरा हुआ आवेग
अजीब सी बेबसी और एक कचोट
जो उमड़-धुमड़ कर पिघलने
को तैयार था
संवेदना के इतिहास से घिरे
स्नेहसिक्त बादल आज बरस तो गए
पर बूंदें धरातल तक नहीं आई
त्रिशंकु की तरह
तुम्हारे ही अधखुले अधरों पर
लटकी रह गई
आज तुम्हारे अपराध-बोध की
छत्रछाया में रुक कर सुस्ताना
बहुत सुखद लग रहा था मुझे
तुम लिपटे रहे मुझसे
चंदन की सुगंध की आस में
और मैं तय करती रही
तुम्हारी प्रतीक्षा से उत्सर्ग तक कि दूरी
बाहर आज धरती के आगोश में
'पारिजात' भी कुछ पाने की बेचैनी
और खोने की पीड़ा से गुजर रहा था
बिल्कुल मेरी तरह..
तुम्हारे प्रति उमड़ते प्रेम ने मेरे मन में
सावन के झोंकों का काम किया
मुझे नहीं पता
आज जो कुछ भी घटित हो रहा है
उसमें चाहत नाम मात्र है भी या नहीं
आज कितनी ही अनगिनत बातें
रगो-रेशे के साथ
उभरते और मिटते चले गए
शंशय और संदेह के सारे कांटे
जैसे पलट कर मुझे ही बेधने लगे
भावुकता मूर्खता का पर्याय है!
जानते हुए भी
एक बार फिर मैं,
अप्रमेय प्रेम की खोज में
सबसे सरलतम प्रमेय से छली गई
क्या!?
ये मेरा आरंभ होगा या अंतिम-संस्कार
नहीं जानती मैं!